Desi kahani 2 : रूठी सास को मनाए कौन विद्या जी आज भी रुठी हुई थी और खाना नहीं खा रही थी। राखी कितनी बार तो उन्हें मना चुकी थी पर वो थी कि मान ही नहीं रही थी।
” कहा ना एक बार तुझे कि मुझे खाना नहीं खाना है। एक बार सुनाई नहीं देता तुझे। अब मेरे पास आने की जरूरत नहीं है। तू ही खाती रह तेरा खाना”
” अरे वो कह रही है कि खाना खा लो, तो खा क्यों नहीं लेती हो? तुम्हें पता है ना कि सब को खिलाए बगैर वो खाना नहीं खाती है”
तभी ससुर सुरेश जी बोले।
” ज्यादा तरफदारी करने की जरूरत नहीं है। बहु है तुम्हारी, कोई बेटी नहीं है। मुझे नहीं खाना तो नहीं खाना”
“अरे, क्या बच्चों जैसे रूठ कर बैठी हो? तुम्हें इस उम्र में ये सब शोभा देता है क्या? वो बच्ची होने के बावजूद तुमको खाना बना कर खिला रही है। और तुम हो कि इतने नखरे दिखा रही हो”
” एक बार कह दिया ना। आप लोगों को समझ में नहीं आती है क्या? मुझे खाना नहीं खाना। आखिर मुझसे पूछे बगैर बहू छत पर जाकर कैसे खड़ी हो गई। और खड़ी हुई सो हुई, पड़ोसन से बात कैसे कर ली। मेरा बेटा है नहीं यहां पर, और ये मनमानी कर रही है। मेरी कोई इज्जत नहीं है इस घर में। नहीं खाना मुझे खाना”
आखिर सास तुनकते हुए बोली।
“मम्मी जी माफी मांग तो रही हूं। आइंदा ऐसी गलती नहीं होगी। पर आप खाना खा लो ना”
राखी उन्हें मनाते हुए बोली।
Desi kahani 2 : रूठी सास को मनाए कौन
” एक बार कहने पर तुझे समझ में नहीं आ रही है। ये तो गलती करने से पहले सोचना चाहिए था। मेरा बेटा बाहर रहता है, इसका मतलब ये नहीं है कि तुम मेरे सिर पर चढ़कर नाचो”
आखिर विद्या जी की डांट सुनकर राखी अपनी रोनी सी सूरत लेकर वापस कमरे में आ गई। उसे बहुत जोरों से भूख लग रही थी। पर सास थी कि खाना ही नहीं खा रही थी। अब जब तक सास खाना नहीं खायेगी, वो खाना कैसे खा ले।
पति पवन तो अपनी नौकरी के कारण बाहर रहते थे। और राखी अपने सास ससुर के पास। एक देवर भी साथ ही रहता था। उसका नाम मयंक था और वो अपनी पढ़ाई कर रहा था।
अभी तीन महीने पहले ही तो राखी की शादी पवन के साथ हुई थी। लेकिन उसकी जॉब ऐसी जगह थी जहां फैसेलिटीज मुश्किल से ही मिलती थी। इस कारण वो राखी को ले जा नहीं सका। पर अपनी इस तीन महीने की शादी में वो अपनी सास से जरूर परेशान हो चुकी थी।
राखी की आदत थी कि वो खाना बनाकर सबको खिला कर ही खाना खाती थी। लेकिन सास तो छोटे बच्चों की तरह छोटी-छोटी बातों पर रूठ कर बैठ जाती थी। और फिर खाना नहीं खाती थी। इस कारण से कई बार राखी भी भूखी रह जाती थी। फिर देर से खाती तो भूख तो खत्म चुकी होती।
राखी को ये बात तब ही पता चल गई थी जब वो शादी के कुछ दिनों बाद अपने मायके रहने गई थी। विद्या जी ने उसे सिर्फ दो दिन ही मायके में रहने के लिए कहा था। लेकिन राखी की बड़ी बहन अगले दिन आ रही थी। इस कारण राखी एक दिन ज्यादा रुक गई। बस जब लौट कर आई तो सास मुंह फुला कर बैठी हुई थी।
राखी ने जब खाना परोसा तो खाना नहीं खाया। खूब तमाशा किया। उस दिन के बाद से ही राखी अपने आप को बदलने की पूरी कोशिश कर रही थी। लेकिन उसके पास जो उसकी सास थी, वो पता नहीं कब कौन सी बात को लेकर बैठ जाती थी। जरा जरा सी बात को लेकर लड़ जाती थी।
आज भी सिर्फ छोटी सी बात थी। सास नीचे अपने कमरे में लेटी हुई थी। तो राखी ऊपर छत पर कपड़े लेने चली गई। जब कपड़े लेने गई तो पड़ोस में रहने वाली आंटी जी छत पर आई हुई थी। राखी कपड़े उतार ही रही थी कि इतने में आंटी ने कहा,
” बेटा शायद ये दुपट्टा तुम्हारा है जो उड़कर हमारी छत पर आ गया”
दुपट्टे को देखकर राखी ने कहा,
” ये तो मेरा ही दुपट्टा है”
बस तब तक विद्या जी वहां पहुंच गई और छोटी सी बात का बतंगड़ खड़ा कर दिया। वहां तो कुछ नहीं बोली। पर नीचे आकर शुरू हो गई,
” मुझसे पूछे बगैर छत पर गई तो गई कैसे? और फिर पड़ोसन से बात करने की क्या जरूरत थी? क्या वहां खड़ी होकर हमारी बुराइयां कर रही थी?”
खैर, इतने मनाने के बावजूद भी सास नहीं मानी तो राखी अपने कमरे में आ गई और बिना खाना खाए सो गई। दूसरे दिन विद्या जी मंदिर दर्शन करने के लिए गई हुई थी। तब ससुर जी ने राखी को बुलाया और कहा,
” बेटा तू कब तक अपनी सास की मनमानी को सहती रहेगी। उसका तो शुरू से ही यही तमाशा रहा है। अगर उसके मन की मर्जी का नहीं होता तो वो खाना पीना छोड़कर मुंह फुला कर बैठ जाती थी। अगर तू उसे मनाने में ही रह गई तो जिंदगी भर तू आधे से ज्यादा टाइम तो भूखी ही रह जाएगी”
ससुर जी की बात सुनकर राखी बोली,
” पर पापा जी, मैं भी क्या करूं? आदत है मेरी। जब तक मम्मी जी और आप लोग खाना नहीं खा लेते, मुझसे खाना खाया नहीं जाता”
” बेटा एक बात कहूं, बुरा मत मानना। संस्कार अपनी जगह है और ऐसी मनमानी अपनी जगह। जो लोग नहीं समझते वो लोग नहीं समझेंगे। चाहे आप उनके लिए अपनी जान ही क्यों ना दे दो। ऐसे लोगों के लिए तुम अपनी क्यों भूख मारती हो। देखो बेटा, तीन महीने की शादी में तुम कितनी पतली हो चुकी है।
ऐसे तो तुम बीमार हो जाओगी। तुम्हारी सास का क्या है? उसे तो रूठने की आदत है। वो तो अपने कमरे में नमकीन या बिस्किट जरूर रखती है, जो बाद में उठकर खा लेती है। पर तुम्हारे शरीर में बीमारी लग गई तो वो तुम्हें ही अकेले भुगतनी है। सास तो सेवा नहीं करेगी”
” फिर मैं क्या करूं पापा जी। मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आता”
राखी ने पूछा।
” देखो बेटा, तुम वही करो जो हमने किया था। जब भी तेरी मम्मी जी रूठ कर बैठे, तुम उन्हीं के सामने बैठकर खा पी लिया कर। एक बार रुठेगी, दो बार रुठेगी। तीसरी बार में अपने आप ही फिर रूठना छोड़ देगी। ऐसे लोगों का रूठना क्या मनाना क्या। समझ रही हो ना मेरी बात”
आखिर ससुर जी की बात राखी को समझ में आ गई। दो दिन बाद सासू मां ने पनीर की पकौड़ियां बनाने के लिए कहा। लेकिन पनीर तो घर में था ही नहीं और बाहर बारिश हो रही थी तो पनीर लेने कोई गया नहीं। तो ससुर जी के कहने पर पालक और गोभी की पकौड़ियां बना ली।
जब राखी ने विद्या जी को पकोड़ियां परोसी तो पकोड़ियां अपनी मर्जी की ना देखकर वो रूठ कर बैठ गई। आखिर ससुर और देवर को खिला-पिला कर राखी ने दोबारा जाकर सासू मां से कहा,
” मम्मी जी खाकर तो देखिए। पकौड़िया बहुत अच्छी बनी है। पापा जी और भैया दोनों को पसंद आई है”
” मुझे नहीं खाना तेरी पकोड़ियां। जब तुझे कहा था कि पनीर की पकौड़ी बना ले तो बेवजह पालक और गोभी भी पकौड़ी क्यों बनाई। यही इज्जत है तेरी नजरों मेरी। मैं तो नहीं रखती ये पकौड़ी अपने मुंह पर”
“पर मम्मी जी, जो चीज घर में थी ही नहीं, वो मैं कहां से लाती”
“मुझे नहीं पता। पर तूने मेरी बात मानी क्यों नहीं”
राखी ने इसके आगे कुछ नहीं कहा। अंदर रसोई में गई गैस बंद की और वही सासू मां के लिए परोसी हुई पकौड़ियों की प्लेट लेकर बाहर आकर खाने बैठ गई। राखी के इस कदम की विद्या जी को बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। वो हैरान रह गई। पर कुछ कह नहीं पाई। और गुस्से में अपने कमरे में उठकर चली गई।
ये सोचकर कि राखी मनाने आएगी।
राखी ने ससुर जी की तरफ देखा तो उन्होंने इशारे से शांत रहने के लिए कहा। आखिर में तो पेट भर के पकोड़ी खा ली उसके बाद रसोई की सफाई करके अपने कमरे में आ गई। और उधर कमरे में सासू मां इंतजार करती ही रह गई।
जब दो-तीन बार ऐसा ही हुआ तो सासु मां को भी समझ में आ गया कि अब राखी झुकने वाली नहीं और ना ही उन्हें बेवजह मानने वाली। तो अपने आप ही उन्होंने रूठना छोड़ दिया। आखिर ऐसे रूठने का क्या फायदा, जिसमें मानने मनाने वाला ही कोई ना हो।